बस एक ख़्याल जो दिल को पल पल मार देता है
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मेरी कज़ा पे वोह संगदिल जशन मनायेगा
मस्सराते चिराग को वो बेदर्दी से जलायेगा
रोयेगी मेरी रूह ज़ार ज़ार तब मेरे मौला
और वोह मुस्कुराके एक नया जाम उठायेगा
ना आएगा कभी वोह मेरी मजबूर मज़ार पे
अपनी बेरुखी से वो कुछ और मुझे तड़्पायेगा
ना ज़िंदगी ना मौत सुकून दय सकेगी तब
जब वो मेरे किस्से हस के दोस्तो को दोहरायेगा
क्या मिल 'मुसर्रत' तुझे एक बेवफा पे मिट्के
क्या ऐसा अधूरा रिश्ता कभी प्यार कहलायेगा!
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